Last modified on 10 सितम्बर 2014, at 11:36

चिरयति करूँ या कविता लिखूँ / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

रीति छोह से आकुल गात
थी वो विकल अमावस रात
क्षण में लोहित अचल प्रतिबिम्ब
मायावरण सुमनावलि बिम्ब
मंजुल प्रीति की सौरभ रेखा
वैरागी मन ने कभी था देखा
तत्क्षण उस लंगड़े की गाथा
वक्र खलक से ठनका माथा
दीन मौलवी घनघोर मचाए
दे बाबू !स्वर किसी को ना भाए
अपलक सोचता कैसी दुनियाँ?
दानवीर सब बन बैठे बनियाँ
व्यापारी-वजीर गठरी सहलाता
चाकर का भविष्य -निधि खाता
सोचते उभरा मन में एक चित्र
घटना अविरल कलुष विचित्र
रोजी चाहत में एक अवला आई
सेठ मत्त देख धवल तरुणाई
काम के बदले लूटा अस्मत
उसके अंश में कैसी किस्मत?
इस गुनधुन में हो गया भोर
सुन विहग वृन्द के चहचह शोर
बिम्ब से बिम्ब टकराकर लुप्त
हुई आशु काव्य की किरण विलुप्त
 भाव सदृश अदृश्य सा साया
क्यों मैं अंतर में कवि मन पाया!
पर दुःख को हथियार बनाकर
अपने सुख का का कल्प सजाकर
परबुद्धि -दुष्ट प्रतिक्षण गाते हैं
पर अपनी विपत्ति में पछताते हैं
जल विलग मीन का अंतिम काल
 देख पथिक पथ चला सकाल
ऐसे चितवन में रहकर मैं
क्या अश्रूपूरित नयन से देखूँ!
हाथ माथ पर लिए सोचता
शूलबेधित तन से क्या सीखूँ!
किंकर्तव्यविमूढ़ विषुवत पर
चिरयति करूँ या कविता लिखूँ!!!