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चीखो चीखो चीखो / वंदना गुप्ता


आओ चलो
गढ़ें एक चीखों का संविधान
कि
चीखें अप्रासंगिक तो नहीं
बना डालें चीखों को ज़िदों का पर्याय
ये समय है
चीखों की अंतरात्मा को कुरेदने का
एक दुर्दांत समय के साक्षी बनने से बेहतर है
चीखो चीखो चीखो
कि
जिन आवाज़ों में दम होता है
वो ही पहुँचती हैं अर्श तक
आज मेरी चीख तेरी चीख से तेज कैसे की प्रतियोगिता नहीं
आज जितनी तेज चीख
उतना साष्टांग दंडवत करने का नियम है
तो फिर करो एक जिद खुद से
चीखना महज क्रिया या प्रतिक्रिया नहीं
चीखना जरूरत है
मेरी तुम्हारी
इसकी उसकी
चीखना बिना मोल भाव की रंगोली है
एक घड़घड़ाहट ही काफी है बादलों को छाँटने को


चीखो
कि चीख भी एक अभिव्यक्ति है
और आज के युग में
चीख का प्रेत करता है जब अट्टहास
आत्महत्या भी बन जाती है चीख का पर्याय

नहीं हैं हम तराजू के किसी भी पलड़े में भारस्वरूप
बस संतुलन का काँटा बन
करो चीखों को सार्थक
युग परिवर्तन के इस दौर में
निकासी का अपरूप हैं चीखें

अवसाद या घुटन का शिकार होने से बेहतर है चीखना