फिर आया चुनाव का मौसम
फिर छाया दहशत का आलम
कितनी कत्लें, हत्याएँ होंगी?
पर किसको है इस बात का गम?
वोट माँगने आते हैं जब,
बातें खूब बनाते हैं तब,
पर जीत गए जब दाँव-पेंच से
वादे कहाँ निभाते हैं तब?
कोई जीते या कोई हारे,
हम तो रहे वही बेचारे,
वही राशन की लम्बी लाइन,
वही बढ़ी महँगाई के मारे।