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चुप्पी की आवाज़(कविता) / पूजानन्द नेमा

मेरे बुजुर्ग कह गए
कि वरदान मुखरित होकर फलित होता है
और अभिशाप गुप्त रहकर असर करता है ।
मैं इस बात को कभी समझ नहीं पाया
फिर भी आज वक्त को इस तरह चुप्प देखता हूँ
तो मुझे डर लगने लगता है ।

नवजात शिशु की तरह
यदि आज मैं भी चुप्प देखता हूँ
और हरेक की स्वार्थ-भरी भ्रष्ट हरकतों को
बेखुदी से बर्दाश्त किए जा रहा हूँ
वीतराग की तरह
अत्याचारों, दुर्व्यवहारों और
कुनैन-सी बातों से बेअसर रहता हूँ ।
धरती की तरह
हर नालायक का
गू-मूत सह रहा हूँ
और मेरी छाती पर
यह कल का बच्चा मूँग दल रहा है
या फिर लदे-फदे पेड़ की तरह
हर पत्थर मारनेवाले को अपनी कमाई बांटकर
बाँझपन-वाली सुरक्षा मोल ले रहा हूँ ।
तो सिर्फ इसलिए नहीं कि गूँगा हूँ
या मेरे हाथ-पाँव को लक्वा मार गया है
या मेरे पास भाषा नहीं
बल्कि इसलिए कि कुकुरमत्तों से पनपते
बेईमानों ने सब अर्थों को
अपना ही अर्थ दे-देकर
मेरी भाषा को चिलमभरवों की चीज़ बनाकर
अर्थहीन कर दिया है ।
यहाँ तक कि
राम-लक्ष्मण का प्रेम-संवाद सर्प-दंश हो गया है
कीच का कौवा वेद लिख रहा है
और व्यास मुनि ककहरा सीखने को बाध्य हुआ
कीच का कौवा वेद लिख रहा है
और व्यास मुनि ककहरा सीखने को बाध्य हुआ बैठा है
पूजा व मंत्रों पर किसी को आस्था नहीं
आंदोलन पर किसी को विश्वास नहीं
यानी अब अपनेपन के नाम से उठी
हर जानी-अनजानी आवाज़ से
अपनों की
छोटी-बड़ी हर लाइन टूटने लगी है ।

मेरा चुप्प हो जाना
आपका चुप्प रहना
मृत्यु नहीं
कसूर नहीं
हम आप सभी जानते हैं
कि वक्त की चुप्पी कभी बे- आवाज़ नहीं होती।