बहुत चुभते हैं तुम्हारे शब्द
जब तुम डाँट रही होती हो ।
लगता कि अब तक मुझे
छोटे बच्चे से ज़्यादा तुम
कुछ नहीं समझती हो ।
बहुत बार सोचता हूँ मैं
बस अब और नही...
ज्यादा छूट की हक़दार नहीं तुम
न ही मैं तुम्हारा ग़ुलाम कोई ।
पर यह क्या...!
जब तुम कई दफ़े
मेरी बड़ी-बड़ी ग़लतियों पर भी
कुछ नहीं कहती
और चुप रहती हो प्रायः
जान-बूझ कर की गई
मेरी मूर्खताओं पर भी
तब लगता है... काश एक बार
डाँट लेती तुम मुझे
और कान उमेठ कर कहतीं
आखिर कब जाएगा बचपना ?
कब आएगी अक़्ल तुम्हे ?
बहुत चुभती है तुम्हारी चुप्पी
हाँ बहुत चुभती
जब तुम्हारे तन-बदन में
आग सुलगाते मेरे गुस्से को भी
चुपचाप तुम ठण्डे जल-सा पी लेती !!