चुप्पी तोड़ो / आरती कुमारी

देखो ना प्रिय
ये कैसा शोरगुल मचा हुआ है
चारों तरफ..।
नफरत दिलों में लिए
सबने खोल रखे हैं
अपने अपने मोर्चे l
कोई गौ बकरे की दे रहा दुहाई
तो कोई दर्ज़ करा रहा ऐतराज़
मंदिर के घंटे
और अजान की आवाज़ों पर ।
किसी ने उठा लिए है
अपने हाथों में पत्थर
तो कोई जांबाज़ हो रहा शहीद
अपनी सरहद पर
कहीं ...
बिछ रही हैं बारूदी सुरंगे
तो कहीं
कर रहे है किसान
अपनी नियति पर हाहाकार ।
पर देखो
किस तरह अपनी चुप्पी तोड़
उठा लिया है कवियों ने
हुक्मरानों के ख़िलाफ़ अपनी कलम।
रचनाकार लिख रहे है
लहू से अपना आक्रोश ।
विचारों के हथोड़े से
तोड़ रहे हैं
बुद्धिजीवी भी ...निरंतर..
समाज की चुप्पी को ।
आम आदमी कराह कर
बिलबिला रहा है
और जा बैठा है जंतर मंतर ।
बिठा रहे है नेतागण भी
बड़े ही सधे हाथों से
राजनीति की बिसात पर
बड़बोलेपन के ज़हरीले मोहरे।
इस स्याह वक्त में
प्रिय
तुम भी तोड़ो अपनी चुप्पी
फूंक दो बिगुल
प्रेम की क्रांति का
रच दो प्रेम कविताएं
जो जगा दे हृदय में संवेदनाएं
लगा दे दिलो में सेंध
बिछा दे एहसासों के सुरंग
और प्रज्वलित कर दे
मनुष्यता के तेल में डूबी
प्रीत की लौ को।
प्रिय
तुम डरना मत
कि कहीं जारी ना हो जाये
तुम्हारे नाम का कोई फतवा
कि कहीं कोई हाकिम
जला न दे तुम्हारी कृतियाँ
की कहीं ज़ालिम लोग
तुम्हारे दिल मे ठोक के कील
उगलवा न ले तुमसे
तुम्हारे प्यार का नाम...
उस कठिन वक्त में भी प्रिय
तुम चुप मत रहना
गाते रहना प्रेम के गीत
रचते रहना प्रेम का संगीत
और बचा लेना
प्रेम की संस्कृति को
बचा लेना
मनुष्यता की
तबाह होती संस्कृति को...।

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