’मृत्यु हूँ मैं
कोई नहीं बचा मुझ से’
—दर्प से भरी थी अवाज़
’तो क्या
विवशता है तुम्हारी वह
चाहो तो भी
क्या दे सकती जीवन
जैसे ले लेती हो’
चुप है निरुत्तर वह
शर्मिन्दा दर्प पर अपने
अपनी विवशता पर दुखी
मुझे
उस पर
दया आ रही है ।
—
5 दिसम्बर 2009