दिन चढ़ने के साथ - साथ
उठ आते हैं कई ख्याल
शायद मिल जायें कुछ लफ्ज़
कुछ अक्षर कहीं मुहब्बत के
जो बना लें घर
नज्मों के साथ सफहों पर
खीँच कर निकाल लें
उलटी पड़ी आवाजों को
खुश्क रातों के लबों पर
रख दें कोई समंदर
नब्ज़ रूकती है …
सीने- दर- सीने
मेज पर पड़ी किताब के पन्ने
फड़फड़ाते हैं …
थके हुए ख्याल धीमे से
गिरा देते हैं
चूड़ियों पर ठहरी बूंद ….