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चूल्हे की आग / राजीव रंजन

जीर्ण-शीर्ण तृण के छप्पर से
झर-झर पानी झरते देखा।
खुशियों के बादल को हमने
आफत बन बरसते देखा
भींगी माँ की ममता को प्लास्टिक
के टुकड़ों से ढ़कते देखा।
तर-बतर जिंदगी, सैकड़ों छेदों
को दो हाथों से भरते देखा।
मिट्टी की दिवारों सा अरमानों
को तिल-तिल गलते देखा।
भींगे ठंडे चुल्हे की आग को
पेटों में सुलगते देखा।