1.
भादो के काले बदराए दिन हों
कि पूस की चुभती हुई ठण्ड
रातें जब एकदम निशब्द हो जाती हैं
थक कर बेसुध औन्धी गिरीं…और गहरी स्याह
जड़ता, अन्धेरे और सन्नाटे के खिलाफ़
तभी किसी एकान्त से
दर्ज़ होती है खड़खड़ाहट की हौली-हौली
लेकिन एक लगातार आती आवाज़ ।
मनुष्यों की सभ्यता में
नामालूम ये कब से शामिल हैं…
किसी भी इतिहासविद
या पुरातत्ववेत्ता के अभिलेख में
इनके विकास की क्रम-यात्रा का
सही-सही लेखा-जोखा मौज़ूद नहीं
क्योंकि बेतरह और लगातार मारे जाने के
बावज़ूद इन्होंने अब तक बचाए रखा है ख़ुद को
विलुप्त होती प्रजातियों में शामिल होने से ।
अपनी दुश्वारियों के सहोदर हैं ये…
दोनों साथ-साथ जन्मे
लिहाजा अभिशप्त हैं ज़िन्दा रहने के लिए
उन्हीं दुश्वारियों के साथ ताज़िन्दगी
इनका पूरा जीवन अन्तहीन
विस्थापनों की एक अर्थहीन कथा है..
इतनी बड़ी दुनिया में ज़मीन का
ऐसा कोई छोटा टुकड़ा नहीं
जहाँ ये रह सके महफूज़…
जिनको कह सकें अपना ।
2.
इनके माथे हैं गुनाह सौ…
और हज़ार तोहमतें इनके नाम
शायद इसलिए भी ये पृथ्वी पर उपस्थित
सबसे अवांछित और हेय नस्लों में
गिने जाते रहे हमेशा
संक्रमण के जन्मना संवाहक
और मीठी नीन्द के चिरन्तन बैरी..
शीतगृह और खलिहानों के पुरातन लुटेरे
और कपास के आदिम दुश्मन
दुनिया की एक बड़ी आबादी
इनकी वज़ह से भी खाने-कपड़ों से वंचित है
कई नामीगिरामी अर्थशास्त्रियों
और शोधकर्ताओं की ऐसी मान्यता है ।
दुनिया भर की नुमाइशगाहों में रखे गए
और अब तवारीख़ बन चुके दस्तावेज़
या फिर बड़ी जतन से सहेजकर रखी हुईं
तमाम नायाब किताबों के लिए
एक लगातार ख़तरा हैं ये
अपने वजूद को बचाए रखने के लिए
इनके ही रहमोकरम के मोहताज़ हैं
स्मृतियों में शेष बचे रह गए
गिनती के कुछ लुप्तप्राय प्रेमपत्र
जबकि जीव-जगत के निहायत
कमज़ोर और लाचार प्राणी हैं ये…
युग-युगान्तर से रहे हैं ये
दुर्बलता और कायरता के प्रतीक !
इनकी ही बदौलत ज़िन्दा हैं भाषा-विज्ञान में
आज भी अनगिनत कहावतें और मुहावरे
जहाज़ में छेद हो जाए तो कहते हैं
कि सबसे पहले ये ही भागते हैं
अरब से कमा के लौटे चचाज़ाद भाई की
नई फटफटिया और दोनाली देखकर
अक्सर चुटकी लेते थे छोटे काका
कि अगहन में तो चूहे भी
सात-सात जोरुएँ रखते हैं
पिता अक्सर नसीहत दिया करते,
जीवन में सुखी रहना है तो ‘चूहा-दौड़’ से बचो
‘पुनः मूषक भव’ वाला क़िस्सा
तो हमने बचपन में ही बाबा की ज़ुबानी सुना था ।
3.
औक़ात के मुताल्लिक़ हमेशा हाथी के
बरक्स आँका हमने इनको
हमारी ताक़त के मुक़ाबिल खड़ा होता है जो
उसकी हस्ती चूहे बराबर समझते हैं हम
ज़ाहिर है, उस गजमस्तक आराध्य को
हम अक्सर भूल जाते हैं तब
जो अपने तथाकथित पराक्रम और स्थूल काया के
बावज़ूद निर्भर है इसी बेऔक़ात सी जान पर
दसों दिशाओं में कहीं भी आने-जाने के लिए..
जहाँ ये बाक़ायदा पूजे जाते हैं…
माने जाते हैं पवित्र और श्रद्धेय
इसी आर्यावर्त में ऐसा कोई मन्दिर भी है एक
जनपद के सबसे बाहुबली नेता की बेटी
बेहोश पाई गई एक रोज़ अपने हम्माम में
अख़बारों की रपट के मुताबिक
उसके पाँव के नीचे एक चूहा आ गया था
अपनी तुक्षता के बारे में (तुच्छता)
ये कभी नहीं रहे किसी मुग़ालते में
ज़ारी नहीं किया अपने पक्ष में कोई बयान..
या बचाव में कोई हलफ़नामा.
उनकी हैसियत को लेकर हम ही रहे
हमेशा से संशयग्रस्त और तर्कविहीन
उन्होंने ज़्यादा किया हमारा नुक़सान
कि हमने लीं इनकी जानें बेमुरव्वती से
इस बात पर ख़ामोश है हमारी जमात
जबकि यह सवाल ज़रूर होगा उनके भी ज़ेहन में ।
4.
इनकी निरीह और कातर आँखों को
ज़रा एक नज़र गौर से देखिए…
अपनी मर्ज़ी से नहीं आए ये
इस बेरहम और ज़ालिम दुनिया में
कभी नहीं चुनी होती यह ज़िन्दगी
अगर होता कोई विकल्प इनके पास
इतनी घृणा, तिरस्कार, अपमान और संघर्ष से भरी ।
ये हमारी सभ्यता के सबसे घुमन्तु यायावर हैं..
दुनिया के सबसे बड़े कलन्दर
हमारी मनुष्यता को इनकी जिजीविषा से
अब भी सीखने की ज़रूरत है…
पृथ्वी पर कहीं नहीं इनका घर
फिर भी बना लेते हैं ये कहीं भी ठौर अपना
बार-बार उजाड़े जाने के बाद भी
हर बार बसा लेते हैं अपना कुनबा
बसर कर लेते हैं हमारी जूठन पर
अपनी मुख़्तसर ज़िन्दगियाँ
बदबूदार गटर हो या सीलन भरी दुछत्ती..
कहीं भी कर लेते हैं प्रेम…
फटे-पुराने जूतों के भीतर
बढ़ाते रहते हैं अपनी पुश्तों का कारवाँ ।
अदने से परदे पर घूमता है नुक़्ते सा कोई तीर
निकलती है ‘क्लिक’ की मद्धम सी आवाज़
और हमारे सामने खुल जाती है
विस्मयकारी सूचनाओं और सम्पर्कों की
एक विराट-अद्भुत्त दुनिया…
तब इसकी हमनाम शै ही दुबकी हुई
घूमती होती है हमारी हथेलियों के इशारों पर
कितने मौक़ापरस्त और लाचार हैं इनके बरक्स हम
कि हरेक बार पहले इनको ही भेजा
अन्तरिक्ष में ख़ुद जाने की बजाए
ढाए हज़ार सितम शोधशालाओं में
टीकों और दवाओं की ईज़ाद के नाम पर
फिर भी ख़ाली रहे इतिहास के सफ़े
इनकी क़ुर्बानियों के ज़िक़्र और दास्तानों से ।
5.
बहुत चुराया होगा तो भूख भर अनाज,
किसी के हक़ का निवाला तो नहीं छीना
थोड़े-बहुत कपड़े-कागज़ात ही कुतरे होंगे,
किसी के रिश्तों की डोर तो नहीं काटी
चबा डाले होंगे चन्द हरुफ़,
लफ़्ज़ों को बेमानी और बेआवाज़ तो नहीं किया
भुरभुरी की होंगी खेत-खलिहानों की ज़मीन..
कुछ कच्चे-पुराने मकानों की नींव
लेकिन रवायत और उसूलों पर तो
नहीं आज़माए कभी अपने पैने दाँत !
जो दिखते हैं ज़हीन और पहनते हैं नफ़ीस कपड़े
जो बोलते हैं संजीदा ज़ुबान…
और रहते हैं आलिशान कोठियों में
जो अपने ही हमज़ाद के खौफ़ से
चलते हैं बुलेटप्रूफ़ गाड़ियों पर
और बिस्तर से लेकर मन्दिर के गर्भगृहों तक
घिरे रहते हैं सुरक्षा के अभेद्य घेरे में
जो बने बैठे हैं हमारी ज़िन्दगियों के
मुख़्तार और मुंसिफ़
और अपने सख़्त जबड़ों से चबा रहे हैं
जो हमारा मुस्तक़बिल … मुसलसल
चूहों की उस प्रजाति के बारे में भी सोचिए ज़रा
सबसे ज़्यादा डर और ख़तरा है जिनसे हमें ।
आदिम नफरतों और हज़ार हिकारतों के बाद भी
चूहे शामिल रहे हैं आदियुग से
हमारी सभ्यता में…और रहेंगे ये
अनन्तकाल तक, अलग-अलग काया में..
बदल-बदल कर वेश…बदल-बदल कर स्वांग ।