भरे अभिमान आन जान के गुमान, ज्ञान गुरु छोडि आन कूर! केतिक रजाहिगो।
औचक गहेगो आनि तोहि न पैरेगो जानि, भाजिबे को नाहि पंथ कैसेको भजहिगो॥
हेम रथ वाजि बाज वारन विसास आश, नारि सुत मीत हित अंतहूँ लजाहिगे।
चेतु चितलाय आदि अंत जो सहाय, ना तो रीते हाथ पाँय बूढ़! धरनि तजहिगो॥10॥