चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं,
दर्द सभी में था-
जीवन का दंश सभी ने जाना था।
पर दो केवल दो
मेरे मन में कौंध गयीं।
क्यों?
क्या उन में अतिरिक्त दर्द था
जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा,
या मुझ में कोई छायास्मृति जागी थी
जिस को मैं ने उन आँखों में पढ़ा
कि जैसे सदा दूसरों में हम
जाने-अनजाने केवल
अपने ही को पढ़ते हैं?
मैं नहीं जानता किस की वे आँखें थीं,
नहीं समझता फिर उन को देखूँगा
(परिचय मन ही मन चाहा हो, उद्यम कोई नहीं किया),
किन्तु उसी की कौंध
मुझे फिर-फिर दिखलाती है
चेहरे असंख्य, आँखें असंख्य,
जिन सब में दर्द भरा है
पर जिन को मैं पहले नहीं देख पाया था।
वही अपरिचित दो आँखें ही
चिर-माध्यम हैं सब आँखों से, सब दर्दों से
मेरे चिर-परिचय का।
विषुव सम्मिलनी, कटक, 13 अप्रैल, 1957