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चौथी किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

खुल गया प्राची दिशा का द्वार।
बाल-रवि ने विहँस
माँ के
वक्ष को
शोभित किया
पहना झलकते मोतियों का हार
विजय का उपहार।
खुल गया प्राची दिश का द्वार॥
हम जगे
संसार को फिर
जागरण का
नवलतम सन्देश लाये;
वीर हम सन्तान अमरों की
कभी जो मर न पाये;
भूलता है स्वार्थी संसार
खुल गया प्राची दिश का द्वार॥
विश्व के मानव प्रथम हम
सभ्यता के केन्द्र
संस्कृति के केन्द्र;
अर्द्ध निशि के
सघन तम में
सुप्त था जब विश्व
तब यहीं से
ज्ञान का
विज्ञान का
सन्देश लेकर
स्वर्ण किरणें
लोक में आलोक भर
तम दूर कर
भ्रम चूर कर
कहने लगीं बर्बर जगत् से-
‘तू अभी तक सो रहा है!
आत्म-विस्मृत हो रहा है!
देख उस प्राची दिशा की ओर!
देख उस पश्चिम निशा की ओर!
देख वह उज्ज्वल नवल संसार!
देख रे यह अन्धकार अपार।’
खुल गया प्राची दिश का द्वार॥
हो गई आँखें चमत्कृत
सुप्त उस बर्बर निशा के दानवों की;
‘स्वप्न है सब
कल्पना है
रश्मियों की
जल्पना है’
सोचते कुछ देर तक यों ही रहे,
बढ़ता गया आलोक!
था कहाँ साहस किसी में
जो उसे
देता वहीं पर रोक?
जग गया जग
जागरण के गीत गाये
सिर झुकाये
अर्चना की
‘हम ऋणी हैं’
हम न भूलेंगे कभी उपकार
धन्य परम उदार।’
खुल गया प्राची दिश का द्वार॥
दिवस बीते
मास बीते
वर्ष बीते
कल्प बीते
समय बदला
पूर्व का दिनकर ढला
या यों कहूँ
विश्राम लेने वह चला
पश्चिम दिशा की ओर।
पूर्व में निशि का अँधेरा हो गया
स्वर्णमय दिशि का सबेरा सो गया।
और पश्चिम का ऋणी संसार
भूल कर अधिकार के उन्माद में
फूल कर निस्सार भौतिकवाद में
देखता रंगीन सपना
विश्व के सम्राट् बनने का!
पूर्व दिशि की ओर
बढ़ गया चुप-चाप
पूर्व ने स्वागत किया
पर बन गया वह
मधुर स्वागत ही उसे अभिशाप!
शीघ्र पश्चिम
बन निशाचर
बन पिशाचर
रक्त-शोषण्सा में लगा
निज शक्ति-पोषण में लगा;
देश केवल रह गया कंकाल
किन्तु धधकी
एक भीषण ज्वाल;
अस्थियों के ढेर ने
दी गति समय की फेर
शांत थी वह क्रान्ति
शांत था तूफान
किन्तु उसमें ही छिपा था
स्फोट का महान!
रुक सकी कब
झुक सकी कब
हिन्द-वीरों की अमर सन्तान!
हिन्द-धीरों की अमर सन्तान!
बन गईं चट्टान!
रुक गईं सम्राट् की सब शक्तियाँ
झुक गईं सम्राट् की सब शक्तियाँ
‘खोल दो प्राची दिशा का द्वार।’
‘मुक्त कर दो आज माँ का भार।’
‘सुप्त कर दो आज नर-संहार।’
‘देश का है देश पर अधिकार।’
एक कण-कण से उठी हुँकार!
एक तृण-तृण से उठी हुँकार!
आ गया रवि ले विजय का हार!
खुल गया प्राची दिशा का द्वार॥