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छंद 101 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका की सखी-प्रति उक्ति-वर्णन)

धूँधुरित धूरि धुरवाँन की सु छाई नभ, जलधर-धारा धरा परसन लागी री।
‘द्विजदेव’ हरी-भरी ललित कछारैं त्यौं कदंबन की डारैं रस-बरसन लागी री॥
कालि ही तैं देखि बन-बेलिन की बनक, नबेलिन की मति अति-अरसन लागी री।
बेगि लिखि पाती वा सँघाती मनमोहन कौं, पावस-अवाती ब्रज-दरसन लागी री॥

भावार्थ: विरहिणी नायिका सखी से कहती है कि तू मनमोहन को पाती (पत्र) लिख क्योंकि एक बार डूबते हुए व्रज को मोहन ने बचाया है अब फिर वैसा ही उपद्रव देख पड़ता है। हे सखी! आकाश में धूमिल धुवाँ से बादलों का वृंद छा रहा है और मेघों की वारिधारा पृथ्वी का स्पर्श कर रही है। यह तराई भी हरी-भरी मालूम होती है और कदंब की डालों से रस (पानी) टपकने लगा है, कल्ल ही से वन में वेलियों की शोभा देख-देखकर नवयुवतियों की मति अलसाने लगी है; इसलिए शीघ्र ही हमारे सँघाती (साथ रहने वाले) मनमोहन को पाती लिखो, क्योंकि पावस का आगमन पुनः व्रज में वैसा ही देख पड़ता है।