Last modified on 3 जुलाई 2017, at 09:28

छंद 105 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

किरीट सवैया
(मनोज-प्रति काम-युक्ता विरहिणी नायिका की उक्ति)

पावक-पुंजनि खाइ-अघाइ, घने घने घाइन अंग सँवारत।
ऐसैंई दीन-मलीन हुतो, मन मेरौ भयौ अब तौ अति आरत॥
ए मनमोहन-मीत-मनोज! दया-दृग तैं किन नैंकु निहारत।
जानत पीर जरे की तऊ, अबला जिय-जानि कहा अब जारत॥

भावार्थ: कोई विरहिणी नायिका कामदेव से उलाहना देती हुई कहती है कि हे मनमोहन के सखा कामदेव! आप क्यों नहीं मुझपर कृपा-कटाक्ष फेरते। आप तो हर कोपानल में भस्म होने से जलने की व्यथा को भलीभाँति जानते हो, फिर क्यों मुझ अबला को जलाते हो? मैं तो विरहानल में ऐसे ही जलते-जलते शिथिलित हूँ और फिर अनेक दुःखरूपी घाव लगकर मेरा हृदय भी क्षत-विक्षत हो रहा है। मैं तो वैसे ही दीन-मलीन थी? पर अब तो और भी अत्यंत दयनीय दशा को पहुँच गई हूँ।