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छंद 109 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

रूप घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

मंजुल मलिंद गुंजै मंजरीन मंजु-मंजु, मुदित-मुरैली अलबेली डोलैं पात-पात।
तैसौई सुभ सोभै कवि ‘द्विजदेव’, सरस असम-सर बेधत बियोगी-गात॥
चौंथतीं चकोरनी चहूँघाँ चारु चाँदनीनि, चार्यौं घाँई चतुर चकोर तैं चहचहात।
धीर न धरात, चित्त चौगुनौं पिरात आली! कंत-बिनु हाइ दिन ऐसैंईं सिरात जात॥

भावार्थ: हे सखी! देखो, भौरे नवीन पुष्पों की कलियों और शाखाओं पर मधुर गुंजार करते तथा सुंदरी मयूरिणी प्रसन्न होकर वृक्षों की डाल-डाल पर घूमती-फिरती है; वैसी ही समीर भी कैसी मांगलिक शोभा को धारण किए काम के तीर-सा चलकर वियोगियों के अंगों को बेधते एवं चाँदनी के पुष्पों को चंद्र-मयूख जान, चकोरिनी चोंच से नोचकर प्यारे चकोर से चहचहाकर मिल रही है। यह दशा देखकर अब तो धैर्य नहीं रखा जाता, वसंत के दिन हैं, हाय! अब क्या करूँ और कहाँ जाऊँ!