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छंद 113 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(अपस्मार संचारी भाव-वर्णन)

कछु अंचल कौ न सँभार कहूँ, पलहूँ जुग-चारि समाँ करती।
अब लौं इतराइ झुकै-उझकै, कहूँ नाँक-सिकोरती नाँ करती॥
‘द्विजदेव’ दही-सी पलोटै परी, सु तौ नागरि-नेह-निसाँ करती।
लगी साँकरी सी गरैं हाँक री बैनु की, साँकरी-खोरि मैं हाँ करती॥

भावार्थ: इस सवैया में प्रेम की अपस्मार दशा वर्णित है। उस नायिका के गले में वंशी की ध्वनि मानो फाँसी सी पड़ गई है, अतः वह ‘साँकरीखोरि’ में ऊर्ध्व साँस लेती ऐसी बेसुध पड़ी है कि उसे अपना आँचल सँभालने की भी सुध जाती रही। उसकी एक घड़ी युग सी बीतती है, कभी इठलाती, कभी विरह-वेदना से उझकती और झिझकती, कभी नाक सिकोड़ती तथा कभी ‘नहीं-नहीं’ करती एवं कभी जली सी भूमि पर तड़फड़ाती है, मानो प्रेम की अंतिम दशा की सूचना सी देती है।