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छंद 114 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

किरीट सवैया
(रूपगर्विता नायिका-वर्णन)

ए अँग दीपति-पुंज-भरे, तिनकी उपमा छन-जौह्न सौं दीजतु।
आरसी की छबि त्यौं ‘द्विजदेव’ सुगोल कपोल समान कहीजतु॥
चातुर स्याम कहाइ कहौ? उर-अंतर लाज कछूक तो लीजतु।
रागमई अधराधर की, समता कहौ कैसैं प्रबाल सौं कीजतु॥

भावार्थ: हे श्याम! आप चतुर कहाते भी तनिक (क्षणिक) नहीं लजाते, जोकि मेरे देदीप्यमान अंगों की समता क्षण-जोह्न (बिजली) से देते हो और जिसका अर्थ आलस्ययुक्त है, उस आरसी से मेरे विकसित कपोलों की तुलना करते हो तथा इन अरुण अधरों की समता उस प्रवाल (मूँगा) से करते हो जो कठोर वस्तु है और जिसका नाम ही मूँगा अर्थात्-मंद है, अतः रूपगर्विता नायिका है।