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छंद 124 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

अरसात सवैया
(मानिनी नायिका-वर्णन)

आज गई ती कलिंदजा पैं, लखि कुंज-लतानि कलोलति ही बन्यौं।
ठाढ़ी ह्वै त्यौं स्रम-सीकर तैं, कछु भींगे-निचोल निचोलति ही बन्यौं॥
आइ गए जदुराइ तहीं, ‘द्विजदेव’ गुमान सौं डोलति ही बन्यौं।
कोरि उपाइ करे तेहिँ काल पैं, आली! गुपाल सौं बोलति ही बन्यौ॥

भावार्थ: मानिनी नायिका नायक के सौंदर्य की महिमा का वर्णन अपनी अंतरंगिणी सखी से करती है कि हे सखी! मैं आज जमुना तट पर वन-विहार के लिए गई थी, जहाँ सघन लता कुंज को देख चित्त उल्लास को प्राप्त हुआ। तब श्रम से निकले हुए स्वेद-कण से भीजे हुए वस्त्र मैं खड़ी होकर निचोड़ने लगी कि इतने ही में भगवान् रसिक-शिरोमणि आए। तब मैं खड़ी न रह सकी और चलने की इच्छा की; किंतु उनकी चतुराई तथा उनके रूप-लावण्य में ऐसी फँसी कि कोटि-कोटि यत्न किया कि पूर्व मान का प्रतिपालन करूँ, पर वश कुछ भी न चला और उनसे मान छोड़ शीलवश बोलते ही बन पड़ा।