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छंद 125 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(कलहांतरिता नायिका-वर्णन)

बहु-भाँतिन हारे सिखाइ सबै सखि! आतमभूत के दूत घने।
तब तौ ‘द्विजदेव’ जू ए मद-माँते, भले औ बुरे न कछूक गने॥
घर आइ गए जब सौं जुदराइ, सुघाकर की कछु सोभ-सने।
अरबिंद से जे वे हुते सजनी! अब चाँहत नैन चकोर बने॥

भावार्थ: बहुत प्रकार से काम-दूत अर्थात् उद्दीपनकारी वस्तुओं ने बहुत शिक्षा दी, किंतु इस मदमाते चित्त ने भले-बुरे का कुछ भी विचार न किया। जब प्रियतम सुधाकर की शोभा धारण किए हुए अर्थात् सकलंक मेरे पासआए, तब इन अविवेकी नयनों ने कमल की समता धारण की यानी वह सुधामयी मूर्ति देख बंद हो गए, किंतु अब जब वे पलटि पधारे यानी चले गए तब चकोर की समता धारण कर उनके दर्शन की इच्छा प्रकट कर रहे हैं।