छंद 127 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

ससि आननै-जोग न क्यौं-हूँ लला, जु पैं चित्त चकोर अचेत बनैं।
मुख-अंबुज की है निकाई कहा, अलि-नैन जु सोक-निकेत बनैं॥
‘द्विजदेव’ की एती बिनै सुनि कैं, उर-लाज कछूक तौं लेत बनैं।
बल-बीर कहाइ कैं कान्ह तुम्हैैं, अबलान कौं दुःख न देत बनैं॥

भावार्थ: हे लाल! आपके मुखचंद्र के योग्य यह बात नहीं है कि हमारे चित्त चकोर अचेत पड़े रहें, क्योंकि चंद्र-दर्शन से तो चकोरों को आनंदित होना चाहिए? और मुखारविंद के भी यह बात योग्य नहीं है कि मेरे भ्रमररूपी नयन शोकाकुलित रहें? अर्थात् पù के होते हुए भी भ्रमर-समूह मकरंद-पान को तरसें? मेरी इतनी विनती सुनकर भी तो लज्जा को कुछ स्थान दीजिए अर्थात् ऐसा सरस अंग और ऐसा नीरस हृदय कैसे? यदि कहो कि अंगों का दोष है तो आपका नाम तो बलवीर (कृष्ण और बली, शूर) है; बलवान् लोगों को अबला अर्थात् निर्बल या स्त्री को दुःख देना नहीं सोहाता।

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