छंद 129 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मत्तगयंद सवैया
(पुनः परकीया नायिका-वर्णन)

ऐसैंई चाँहिँ चबाइ चहूँ कहि, एक की बात हजार-बखानी।
द्यौस छै-सातक सौं चरचा, ब्रज-मंडल मैं अति ही अधिकानी॥
सो न कछू समुझै ‘द्विजदेव’, रही धौं कहा हिय मैं अब ठानी।
बादि हीं मोहिँ दहै दिन-राति, सखी! यह जारिबे-जोग जवानी॥

भावार्थ: कोई अनुरागिणी नायिका (अपनी) अंतरंगिणी सखी से अपना दुःख कहती है कि देखो! चौचंद करनेवालियों की यह दशा है कि एक बात की हजार बनाकर कहती हैं, तिसपर छह-सात दिनों से तो और भी चबाव की अधिकाई हुई है, सो वे सब कुछ नहीं समझतीं कि किस बेचारी पर क्या आपत्ति आवेगी, न जाने अपने चित्त में उन सभों ने क्या ठान लिया है! सो हे सखी! ये मेरे जलानेयोग्य यौवन का ही दोष है।

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