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छंद 134 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

किरीट सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

बाँसुरिया इक ओर कढ़ी, त्यौं कढ़ीं इक ओर चबाइनैं जूहन।
जाँईं बड़े-बड़े बंसन की पैं कसाइनि की दुवौ ठाँनि रही प्रन॥
ए दुखहाई दोऊ ब्रज मैं, इन पैं नहिँ ब्यापै कछूक तियापन।
कानन-लागि हरैं सुख वे, हरि-आनन-लागि हरैं यह प्रानन॥

भावार्थ: देखो, बड़ी कठिनता है कि इधर बाँसुरी प्यारे की कमर से निकली और उधर चबाइनों के वृंद निकले हैं। यद्यपि ये बड़े-बड़े उत्तम वंश (कुल व बाँस) में उत्पन्न हुई हैं, परंतु दोनों ने कसाइरन की-सी दुःखदायिनी होने की प्रतिज्ञा की है। यद्यपि इन दोनों का व्रज ही में वास है तथापि ये व्रज-युवतियों के शील को अद्यावधि प्राप्त न हुईं और कठोर हृदय ही बनी रहीं। लोगों के कानों में लग अर्थात् कानाफूसी कर चौचंद बढ़ा सुख-समूह को चबाइनें हरण करती हैं और इधर प्रियतम के अधरासव का पान कर प्रमत्त हो प्राणहानि करने को वंशी उद्यत है यानी वंशी-ध्वनि सुनकर बिना जाए रहा नहीं जाता और जाने पर चबाव का भय है। अनुरागिणी नायिका है।