दुर्मिल सवैया
(रूप व वक्रोक्ति गर्विता नायिका-वर्णन)
लखि कानन आवत नैन नितै, फिरैं कानन ताल-तमालन मैं।
‘द्विजदेव’ जू खीनीं लखैं करिहा, तन-खीनीं परें दुख-जालन मैं॥
अवलोकि ससी-सी कला मुख की, जे ससी ही रहैं सब कालन मैं।
सखि! ऐसी हितून जो सौति गनैं, तौ सयानी कहा ब्रज-बालन मैं॥
भावार्थ: हे सखी! मेरे नेत्रों को कानन (कर्ण) पर्यंत पहुँचते देखकर वे (सपत्नीक) कानन (वन) के ताल-तमाल वृक्षों को पहुँच जाती हैं अर्थात् शोक से व्याकुल हो वन में घूमा करती हैं; मेरी कटि को क्षीण होते देख वे भी दुःख से क्षीण होती जाती हैं और मेरे मुख को ‘ससि’ (चंद्रमा) की कला-सा बढ़ता देख वे सर्वदा ससी (त्रस्त)-सी रहा करती हैं, अस्तु जो गुण विशिष्ट स्त्रियों को तू ‘सवति’ कहती है तो व्रज-वनिताओं में तू कैसी सयानी है अर्थात् सयानी नहीं है, क्योंकि इससे अधिक सहृदयता कौन स्त्री दिखा सकती है।