Last modified on 3 जुलाई 2017, at 10:48

छंद 152 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(चित्र-दर्शन-वर्णन)

आज ब्रजराज के बिलोकी चित्र-मंदिर मैं, भाँनु की दुलारी मैं।
ज्यौं-ज्यौं वह चोरत चलाकौ चित-बाँकौ त्यौं-त्यौं, सोऊहोत चित्र की लिखी-सीचित्रसारी मैं॥
चित्र सौ न चेतन, सुचेतनौं सुन्यौं न चित्र, ‘द्विजदेव’ की सौं दोऊ बतियाँ निहारी मैं।
बीस-बिसैं तातैं या जगत-करता तैं गुनी, काम-करता की करतूति कछु न्यारी मैं॥

भावार्थ: कोई अंतरंगिणी सखी किसी दूसरी सखी से राधिकाजी का, पूर्वानुराग के समय तन्मय रूप से मनमोहन के चित्र को प्रातः काल चित्रसारी में देखकर, विस्मित होकर यों कहती है कि यह विचित्र दृश्य है कि ब्रह्मा की सृष्टि में जड़-चैतन्य क्या चैतन्य-जड़ नहीं हो सकता; किंतु मनोज की सृष्टि में ऐसा ही मैं देखती हूँ। देखो, चित्त चुराने का गुण जड़ पदार्थ में नहीं हो सकता, जोकि इस जड़ चित्र में है और चैतन्य स्तंभित होकर जड़ रूप में नहीं देख सकता किंतु प्रिया जी उस चित्र के दर्शन से स्तंभित होकर जड़ीभूत हो गई हैं।