मनहरन घनाक्षरी
(प्रौढ़ा प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
कूकि-कूकि केकी हिय-हूकनि बढ़ावैं क्यौं न, बिषधर-भोजन के अति उतपाती री!।
साजि दल बादर डरावने डरावैं क्यौं न, ए तौ घनस्याम जू के परम सँघाती री!॥
अजुगति एक तोहिँ बूझन चँहति आली! ‘द्विजदेव’ की सौं कछु बूझति सकाती री!।
अबला अबल जानि सूनी परी सेज मोहिँ, कैसैं छन-जौन्ह की न दरकति छाती री!॥
भावार्थ: हे सखी! ये मयूर बोल-बोलकर क्यों न दुःख दें? इनका तो भोजन ही सर्प है, अतः ये तो उत्पाती हुआ ही चाहें एवं मेघ अपनी सेना से सुसज्जित कर भयभीत करता है, यह भी ठीक ही है क्योंकि ये तो घनश्याम (कृष्ण) के सखा ही हैं अर्थात् जैसे निठुर काले रंग के ‘श्याम’ हैं वैसे ही उनके मित्र ‘मेघ’ भी हैं। परंतु एक बात अयुक्त दीख पड़ती है, उसका भेद तुझसे पूछना चाहती हूँ, पर कुछ संकोच करती हूँ-वह यह है कि मुझ ‘अबला’ की, जो निर्बलता से सेज पर पड़ी है, दशा को देख दामिनी की छाती क्यों नहीं फटती? क्योंकि स्त्री के क्लेश को स्त्री ही भलीभाँति अनुभव कर सकती है।