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छंद 165 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

सबके हिय बादि हीं आइ अहो! सम जोग सबै भुव-भोग परौ।
सब बादि उसाँसन बैठीं भरैं, सबके उर बादि हीं सोग परौ॥
‘द्विजदेव’ जू यामैं बिषाद कहा, जुपैं गोपिन-सीस बियोग परौ।
अब ऊधौ! जू कूबरी कौ वरिबौ, उन ‘लाल त्रिभंगी’ पै जोग परौ॥

भावार्थ: कोई गोपी अन्य सब अपनी सखी गोपियों को भगवान् के वियोग से दुःखित देख अनखा के उद्धव से कहती है कि सब व्रजबालाओं ने व्यर्थ ही भोग छोड़ जोग धारण किया है तथा व्यर्थ ही ऊब के निश्वास भरती व शोक करती हैं। यह कोई विशेष सोचनीय विषय नहीं है कि ‘नंद-नंदन’ ने व्रज-वनिताओं को छोड़ ‘कूबरी’ से ‘स्नेह’ किया, क्योंकि यथार्थ संबंध तो यही है कि जैसी वह टेढ़ी ‘कूबरी’ है, वैसे ही वे भी त्रिभंगी ‘श्याम’ हैं। (इसमें निरुक्ति अलंकार है।)