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छंद 175 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

 मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

जकि-जकि जात गात लेखनी-लखत नैन, थकि जात पेखि पंकज के पात री।
भरि-भरि आवै देह नेह के झकोर जोर, करि-करि आवत न क्यौं हूँ मुख बात री॥
ए री मेरी बीर! पीर बिरह-बिथा की अंग, कैसैंहू न काहू सैं कछूक कहि जात री।
कीजै कहा राम! काम-बैरी की अकस मोहिँ, झूँठैंहूँ सँजोग कौ न जोग दरसात री।

भावार्थ: कोई प्रोषितपतिका (नायिका) स्तंभ सात्त्विक के कारण प्रियतम को पत्र लिखने में असमर्थ हो सखी से कहती है कि वियोग-यातना अब नहीं सही जाती और न लज्जावश किसी से कहते ही बनता है। हा राम! कुटिल काम की बामता से अब मिथ्या संयोग अर्थात् अर्द्ध मिलन, यानी पत्र-लेखन का अवसर भी नहीं दीखता। देखो, मैंने चाहा कि पुंडरीक के पत्र पर प्यारे को अपनी विरह-वेदना लिखकर सूचित करूँ, किंतु उसके देखते ही उन मनोहर पुंडरीकाक्ष के कटाक्षों का स्मरण आने से मेरी दृष्टि निश्चल हो गई और समस्त शरीर स्तंभित हो गया और लेखनी ज्यों-की त्यों ही रह गई। प्रीति की तरंगों से देह (हृदय) भर आती है जिससे शब्द-योजना नहीं करते बनती और न अक्षरों का शुद्ध उच्चारण ही हो पाता है।