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छंद 17 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

भुजंगप्रयात

सबै फूल फूले, फबे चारु सोहैं। भँवैं भौंर भूले, भले चित्त-मोहैं॥
बहै मंद-ही, मंद-ही, बायु रूरे। सुबासैं, सबै भाँति-सौं सोभ-पूरे॥

भावार्थ: फिरकेवार यथायोग्य वेष धारण किए हुए पारिषद-वर्ग तथा सैनिक-समूह इस ठाठ से देख पड़ते हैं कि नाना जाति के फूले हुए फूल मानो प्रसन्न हो रहे हैं; भूले हुए भ्रमरों के झुंड चित्त को मोहित करते हैं और सुगंधि से वासित एवं सब गुणों से युक्त समीर, मंद-मंद बहने के ब्याज से मानो साथ में चल रहे हैं।