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छंद 185 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(मध्या रूपगर्विता नायिका-वर्णन)

बरुनी के उघारत वे सिसिकैं, चहूँघाँ मुख-जोवती आलि चलैं।
कनखैयन ताकि रहै ननदी, वे बदी करि सौति कुचालि चलैं॥
‘द्विजदेव’ इते पर बावरे-लोग, सो डीठि जितै-तित डालि चलैं।
बसिवौ तौं भयौ नित ही ब्रज मैं, कब लौं अलि! घूँघट घालि चलैं॥

भावार्थ: हे सखी! व्रज में रह घूँघट घालकर मैं कब तक चलूँगी, क्योंकि तनिक पलक उठाकर देखते ही वे (प्राणप्रिय) सीत्कार कर उठते। मानो बाण से बिद्ध होते हैं और सखीजन तो चारों ओर मेरे मुख के निरीक्षण की प्रतीक्षा ही किया करती है, ननद (पति की बहिन) कनखियों से ताका करती है और कुटिल सौतें तो सदैव छिद्र ही ढूँढ़ा करती हैं, फिर भी ये बावले व्रजवासी तो इतस्ततः दृष्टिपात ही किया करते हैं।