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छंद 188 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(मध्या गच्छत्पतिका नायिका-वर्णन)

जा दिन तैं चहूँघाँ चलिवे की चली, उससि उसाँस अति आतुर नितै चले।
प्रीतम प्रबास-साज साजे आसपास लखि, आँसू इन आँखिन तैं उँमहि इतै चले॥
‘द्विजदेव’ की सौं प्रिय-प्रीतम इते पैं उठि, पगन चलाइ प्रीत-रीतिन रितै चले।
ऐसी चलाचलि मैं न कीन्हीं कछु काँनि अब, ए रे मेरे प्रान! तुम चाँहत कितै चले॥

भावार्थ: कोई गच्छत्पतिका नायिका अत्यंत दुःख में निकट आई दशम दशा (मरण) को जान अपने प्राण से यों कहती है कि रे प्राण! तुमको पूर्व ही में, जब प्रियतम के परदेश-गमन की वार्त्ता चली थी, शरीर को छोड़ना उचित था, लेकिन तब तो तूने अपनी धृष्टता से यह विार किया कि कदाचित् यह वार्त्ता-ही-वार्त्ता हो, अतः तब तूने निश्वास के चलते ही पर संतोष किया; तत्पश्चात् जब यात्रा की संपूर्ण सामग्री प्रस्तुत होकर बाहर चली तब भी तूने प्रेम के आँसू ही चलाए-बहाए। जब प्रियतम ने प्रेम के नियम को तोड़कर परदेश के लिए पग (पाँव) देहली के बाहर चलाया तब भी तू न चला? निदान जब ऐसी चलाचली में अर्थात् जबकि निश्वास भी चल रहे थे, आँसू भी चलते (बहते) थे और प्यारे भी चलते थे (तब) तू न चला, तो हे निर्लज्ज! अब उनके जाने के पीछे तू क्यों चला चाहता है?