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छंद 196 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

जलहरन घनाक्षरी
(सुरतांत-वर्णन)

आज मनि-मंदर मनोज-मद चाखे दोऊ, लगनि-लगालगि कै मगन मजेज पर।
‘द्विजदेव’ ताहू पैं दुहूँ के अलि! आनन की, दूनी दुति दै रही तमी-पति के सेज पर॥
नैंसुक सँभारि छल-बलन छरा कौ बंद, पौढ़ि रहे पानि-धरि कमल मलेज पर।
छूटे रति-समर छपा कौ सुख लूटि दोऊ, नींदे रति-मदन उनींदे परे सेज पर॥

भावार्थ: आज मणि-मंदिर में श्यामा-श्याम, काम-मद का आस्वादन कर परस्पर प्रेम से परिपूर्ण, प्रसन्न होकर शोभित हैं, तिसपर भी दोनों के मुख की शोभा चंद्र-ज्योत्स्ना से भी द्विगुणित है, किंचित छल-बल से नीवीबंद सँभाले हुए, कमल-दल से सुसज्जित शय्या पर पौढ़े हैं, मानो रति और काम के विहार की शोभा को निंदित किए देते हैं।