Last modified on 3 जुलाई 2017, at 12:26

छंद 200 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मत्तगयंद सवैया
(मध्या प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

चाँहि है चित्त चकोर दवा, स्त्रुति आपनौं दोष परौसिन लै हैं।
ए दृग अंबुज से अकुलाइ, कला बिष-बंधु की हाइ अँचैहैं॥
ऐसी कसाकसी मैं ‘द्विजदेव’, अली! अलि के गन गाइ सुनै हैं।
ह्वैहै सु कौंन दसा तन की, जु पैं भौंन बसंत लौं कंत न ऐहैं॥

भावार्थ: कोई विरहिणी अंतरंगिणी सखी से प्रश्न करती है कि हे सखी! हमारे चित्तरूपी चकोर वसंत में पुष्पित पलासादिक को दावानल मान उसकी चाहना करेंगे अर्थात् भस्म होने की इच्छा करेंगे और कर्ण-कुहर कोकिल का कलरव सुनेंगे तो मलीनता मुख पर आवेगी, क्योंकि संसर्ग दोष से कानों का दुःख उनके पड़ोसी मुख को उठाना होगा, जैसे तुलसीदास जी ने लिखा है-

‘महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यौ परौस॥’

और ये मेरी कमल सी आँखें हाय! विष-बंधु (विष के भाई) अर्थात् चंद्रमा के कोमल मयूष का पान कर मुद्रित होंगी यानी कमल-समूह के वास्ते चंद्र-चंद्रिका स्वभावतः विष ही का काम करती है। ऐसी अंग-प्रत्यंग की ऐंचातनी के समय में हे सखी! भ्रमर-समूह गुंजार-ब्याज से गान कर सुनाएँगे अर्थात् हमारे दुःख पर प्रसन्न हो आनंद-बधाई मचाएँगे। यदि प्राणप्यारे वसंतागमन तक घर को प्रत्यागत न हुए तो संपूर्ण शरीर की क्या दशा होगी?