छंद 219 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(संकेतविघट्टना अनुशयाना नायिका-वर्णन)

जरि जाती उजारत ऊखन के, गरि जाती सुनैं सन की गतियाँ।
हरियारी सु क्यौं रहती ‘द्विजदेव’ सुनैं तृन-सूखन की बतियाँ॥
रहि जाती सु क्यौं वह प्रीति-लता, सहि जाती बिथा कब धौं छतियाँ।
पति राखती जो न दया करिकैं, पति-पूरी पलासन की पतियाँ॥

भावार्थ: अंतरंगिणी सखी से कोई व्रजवनिता अपने मनोगत सुख-दुःखादि के भावों को प्रकट करती है कि वसंत काल में ऊख आदि के खेतों के उजड़ने के कारण संकेत के नष्ट होने की संभावना से मैं जल गई होती और सन (पेटुवा के वृक्षों) को कटते देखकर क्षीण हो गई होती तथा इतर तृणादिकों के सूखने की बात सुनकर भला हरियाली की कौन संभावना थी? अतः ऐसे समय में प्रीतिरूपी लता किस अवलंब पर लहलहाई होती और मेरा हृदय कैसे इन दुःखों को सहन करता? यदि ये पति पूरी (मर्यादा से पूर्ण व पत्रावलियों से युक्त) पलाशों की पंक्तियाँ मेरी पति अर्थात् लज्जा के रखने के लिए तैयार न हो जातीं, यानी यदि पूर्वकथित समग्र संकेत नष्ट हो गए तो नवीन पलाश स्थली उसकी पूर्ति कर सकेगी।

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