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छंद 23 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मौक्तिकदाम

पलास-प्रसून किधौं नख-दाग। किधौं प्रगट्यौ छिति कौं अनुराग॥
छए चहुँघाँ छबि-मंजु पराग। जिन्हैं लखि भाजि गयौ रबि-राग॥

भावार्थ: किंसुक-कुसुम में संदेह है कि वे किंसुक-कुसुम हैं वा पृथ्वी के उर में ऋतुराज के संगम से लगे हुए नख-क्षत हैं, अथवा पृथ्वी का हृद्गत अनुराग, जो अब तक गुप्त था; प्रकट हुआ है। चारों तरफ मनोहर पुष्प-रज के उड़ने से ऐसी लालिमा फैली है कि जिसे देख प्रातः कालीन रवि-मंडल का रंग लज्जित होकर भाग गया।