मनहरन घनाक्षरी
(उत्साह स्थायीभाव-वर्णन)
हाँ की बँधी बकनि, नसा की बँधी मानौं मति, ऊँचै-नींचे बाट की न क्यौं हूँ सुधि गात है।
डीठि दीनैं मृग पैं न पीठि दीनैं ओटन पैं, भूल्यौ राज-काजहू न जान्यौं निसि-प्रात है॥
बातहू तैं अधिक अनौंखौ रथ जात तऊ, चारि पैग आगैं हीँ मनोरथ दिखात है।
जो करि ज्यौं-ज्यौं मृग बन नजिकात त्यौं-त्यौं, सुखमा-बिलोकि मेरौ मन नजिकात है॥
भावार्थ: एक वर्ष पर्यंत कवि ने श्री ‘राधा-माधव’ की ‘लीला’ का वर्णन कर विराम लिया, तत्पश्चात् ‘संवत् उन्नीस सौ पाँच की ‘फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा’ को प्रभात समय मृगया के हेतु यात्रा की और थोड़ी ही देर में एक हरिण के पीछे लगकर ‘सघन वन’ में जा पहुँचा, जहाँ पुनः उसने ‘वसंत’ की सुखमा को प्रत्यक्ष देख मन में यह विचार किया कि यह वही वसंत है जिसके स्वामी की ‘लीला’ संवत्सरपर्यंत मैंने कहकर पार न पा विराम किया? भला उन ‘राधारानी’ का स्वरूप कैसा होगा जिनकी ऐसी महिमा है, उसका भी कुछ वर्णन करना चाहिए? अतः महाराज अपनी मृगया का वर्णन इस भाँति करते हैं कि मुझे हरिण के पछेड़ने में, ‘हाँ लिया, हाँ लिया’ इत्यादि प्रोत्साहक शब्दों की धुनि बँध गई। जैसे किसी मादक वस्तु के खाने से कोई निरर्थक शब्द बकता है एवं ऊँचे-नीचे (खड़बीहड़) मार्ग में चलने से झोंका लगने का ज्ञान शरीर को कुछ न रह एकाग्रचित से अपने लक्ष्य ‘मृग’ पर दृष्टि लगाए हुए, यहाँ तक कि कोई प्रतिरोध मेरे मार्ग में नहीं होता, राज्य-कार्यों के बाहुल्य पर न विचार कर मृगया परायण हो कालोचित ज्ञान से मैं वंचित हो गया। यद्यपि पवन से भी द्रुततर ‘रथ’ का गमन होता था तथापित मृग के मार गिराने का मनोरथ, रथ से भी चार कसी (कदम) आगे ही चल रहा था, ऐसे ज्यों-ज्यों हरिण मैदान छोड़ वन के समीप पहुँचता था त्यों-त्यों उस शोभा को देख मेरा मन भी उसमें लिप्त होता जाता है।