Last modified on 3 जुलाई 2017, at 16:10

छंद 246 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मत्तगयंद सवैया
(कवि-उक्ति-वर्णन)

वैसैं हिँ मालती मंद भई, फिरि वैसैं अनंग-अनी उठि दौरी।
वैसैं हिँ तीरन-नीर गयौ घटि, वैसैं हिँ भूली फिरैं अलि-जोरी॥
वैसैं हिँ आयौ समैं बन मैं, लखिकैं ‘द्विजदेव’ बहोरि-बहोरी।
राधिका-अंगन की उपमा, कहिवे कौं भई मति वैसैं हिँ भोरी॥

भावार्थ: इस सवैया का अर्थ लक्षणा के द्वारा करने से यह हो सकता है कि जैसे श्रीराधिकाजी के अंगों कीउपमा के अर्थ से कवि की बुद्धि मंद हुई वैसे ही चमेली का पुष्प भी हतप्रभ हो गया, (चमेली का फूल शरद्काल में फूलते-फूलते क्रमशः छोटा होता जाता है और वसंतकाल तक ऐसा छोटा, कुरूप और सुगंधिहीन हो जाता है कि अभी तक उसका वर्णन वसंत में नहीं किया जाता) जैसे ज्ञान के हत हो जाने पर अज्ञानता की सेना चारों तरफ से उमड़ आती है वैसे ही अनंग अर्थात् अंगरहित यानी इंद्रियरहित और विवेकशून्य काम की सेना उठ दौड़ी तथा जैसे उपमा, उपमेयादिक की प्रयोग चातुरी की शक्ति अर्थात् कवि-प्रतिभा का हा्रस हुआ, उसी भाँति जैसे वर्णनीय विषय के लिए कवि कोई यथार्थ उपमा न ठहरा सका वैसे ही भ्रमर-भ्रमरी भी उन्मत्त हो भूले फिरते हैं और अपने बसेरे का स्थान नहीं नियत कर सकते। कवि बारंबार पूर्वकालीन वसंत की भाँति वन का रूपांतर देख फिर मुग्ध हुआ और श्रीमती के ‘नख-शिख’ वर्णन की इच्छा के पूर्ण करने में असमर्थ हो गया।