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छंद 250 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिल सवैया
(केश-वर्णन)

चित चौंर की चाँह बृथाँ हीं पग्यौ, मन लाग्यौ बृथाँ घन-भारन मैं।
रति सौं मति ऐसी कहा सरसानी, सिखी-पखवार-सिवारन मैं॥
अपने मन सौं किन देति अहो! चित जोग-अजोग बिचारन मैं।
‘द्विजदेव’ जू सूझि परैगी तुम्हैं, भटक्यौ मन ‘बार’ अँध्यारन मैं॥

भावार्थ: देवी कहती हैं कि तुम्हारा चित्त व्यर्थ केशों के उपमान के वास्ते ललक रहा है कि उनकी उपमा-चँवर, श्याम घटा, मोर पंख, सेवार (शैवाल) आदि की देवें, तनिक अपने मन की योग्यता और अयोग्यता पर विचार तो करो कि उस महामोहिनी के केशों की अँधियारी में तुम्हारा मन भटकने पर उचितानुचित उपमानों के ठहराने की तुमको सूझ रहेगी? अर्थात् तुम्हारी बुद्धि स्वयं अंधकार में भटकती फिरेगी, सब विवेक जाता रहेगा। अंधकार की उपमा बालों की श्यामता से दी जाती है।