Last modified on 3 जुलाई 2017, at 16:16

छंद 251 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(वेणी-वर्णन)

मन-अवगाहे तैं जो होति गति यामैं तन-मन-धनहूँ तैं गति वामैं अनहौंनी सौं।
वाके ईस माधव बखानैं सब बेद ते तौ, छबि-अभिलाषी सदाँ याही छबि-सैंनी सौं॥
‘द्विजदेव’ की सौं तिल एकौ ना तुलत बहु-भाँतिन बिचारि देख्यौ अति मति-पैंनी सौं।
तेऊ कबि, कबि कहवाइ हैं दुनी मैं जे वे समता करत वाकी बैंनी औ त्रिबैंनी सौं॥

भावार्थ: फिर भगवती गिरा समझाती हैं कि हे कवि! अब केश पाश के संबंध में रही वेणी अर्थात् चोटी; उसकी उत्तमोत्तम उपमा त्रिवेणी (प्रयागराज में गंगा, यमुना और तत्रस्थ गुप्ता सरस्वती के संगम को कहते हैं) से हो सकती है। ‘द्विजदेव जू! तनिक तीव्र बुद्धि से भले प्रकार विचारों तो कि वे लोग जो त्रिवेणी से ‘वेणी’ की उपमा देते हैं वे इस संसार में ‘कविवर’ कहलाने की इच्छा कैसे करते हैं? क्योंकि एक तिलमात्र भी तो त्रिवेणी से वेणी की समता नहीं हो सकती। देखो, इस वेणी में मन के मज्जन करने से अर्थात् दत्तचित्त होने से जो मोक्षफल प्राप्त होता है वह त्रिवेणी-संगम में तन, मन, धन तीनों के समर्पण करने से भी असंभव है और उस त्रिवेणी-संगम के स्वामी माधव अर्थात् कृष्णचंद्र हैं; सो वे ही कृष्ण इस वेणी की छवि के दर्शन के सदा अभिलाषी रहते हैं।