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छंद 252 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मत्तगयंद सवैया
(माँग-वर्णन)

वा मग आवत जोई सोई, ह्वै उदास तजैं जग-जाल बखेड़ौ।
मोहन हूँ के बिलोचन या मग आवत ही लहैं मैंन-उँमैंड़ौ॥
वा समता कौं कहा ‘द्विजदेव’ जू नाँहक जात मनैं-मन एैंड़ौ।
भाग-सुहाग-भरी यह माँग, सो क्यौं तुलिहै वह सातुकी-पैंड़ौ॥

भावार्थ: हे द्विजदेव! तुम अपनी समझ में सीधी माँग (सीमंत) की उपमा मार्ग के ठहराके फूले नहीं समाते और ऐंठे चले जाते हो। देखो, कहाँ यह माँग और कहाँ विरक्तजनों का परिसेवित ‘सात्त्विक मार्ग’! भला दोनों के अंतराल को तो देखो कि सात्त्विक मार्ग में जो पदार्पण करते हैं, वे विषयों से उदासीन ही जग-जंजाल को तिलांजलि देते हैं और मोहन अर्थात् योगेश्वर कृष्ण के भी विशिष्ट यानी ज्ञानवान् लोचन इस सीधी माँग के दर्शन मात्र से काम की तरंगों में तरलित होते हैं तो कहाँ यह भाग्य-सौभाग्य संयुक्त सीमंत और कहाँ योनियों का उदासीन वह सात्त्विक पक्ष! दोनों की तुलना करना परम अयुक्त है।