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छंद 32 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

किरीट सवैया
(ऋतुराज के दर्शन से अपनी दशा का वर्णन)

देखत हीं बन फूले पलास, बिलोकत हीं कछु भौंर की भीरन।
बावरी सी मति मेरी भई, लखि बावरी-कंज-खिले-घटे-नीरन॥
भाजि गयौ कढ़ि ग्यान हिए तैं, न जानि पर्यौ कब छोड़ि कैं धीरन।
अन्ध न कौंन के लोचन हौंइँ, पराग-सने सरसात समीरन॥

भावार्थ: ऐसे वसंत के फूले पलाश और भौंर-भीर तथा वापिकाओं के स्वाभाविक घटे जल में कमल खिले देख मेरी बुद्धि ‘बावली’ सी हो गई और धीरता छूटकर हृदय में अज्ञानता का प्रवेश हुआ; सो उचित ही है, क्योंकि वसंत पूरित वायु के झोकों से किसकी आँखें अंध अर्थात् बंद नहीं हो जातीं।