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छंद 38 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दोहा

कबहुँक आपुस मैं रचैं, बहु-बिधि लौकिक-प्रीति।
एक-एक सन कहति हैं, सखि! लखि यह रस-रीति॥

भावार्थ: कभी श्रीराधा-माधव परस्पर लौकिक प्राीति की अनेक रचनाएँ करते हैं, जैसे मध्या-प्रौढ़ादिक की प्रीति के व्यवहार, जिनको देखकर एक सखी दूसरी से बड़े आनंदपूर्वक वर्णन करती है।