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छंद 44 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

रोला
(दुःखिता, मानिनी और स्वाधीनपतिका तथा रूपगर्विता आदि का संक्षिप्त वर्णन)

ता तिय तैं ह्वै क्रुधित, देति बहु-भाँति उराहन।
करत मान हरि-संग, लगैं सखियाँ समुझावन॥
निज तन जोति बढ़ाइ, कबहुँ मोहन-मन मोहैं।
गरब करैं बहु भाँति, जबै सौतिन-दुख जोहैं॥

भावार्थ: और जिस सखी के साथ कपट-वेष धरकर प्यारे पधारे, उसको क्रुद्ध होकर उलाहना देती हैं, कबहुँ (कभी) हरि से राधा को मान करते देख अंतरंगिणी सखियाँ समझाती हैं; कबहुँ (कभी) भगवती राधिका अपने अंग की सुघराई से मनमोहन का मन मोहती हैं और कबहुँ अर्थात् सौतिन को दुःखित देख गर्व करती हैं।