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छंद 47 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

रोला
(रासलीला और उद्धव-संवादादि का संक्षिप्त वर्णन)

खेलि-रास हरि दुरैं, बहुरि बन-कुंजन माँहीं।
ब्रज-जुबतीं बूझतीं जाइ, तरु-पुंजन पाँहीं॥
लीला-बस हरि बसि-बिदेस, ऊधवै पठावैं।
तिन सौं सब मिलि जाइ, आपनौं बिरह सुनावैं॥

भावार्थ: कबहुँ (कभी) रास-क्रीड़ा से ‘मुरलीमनोहर’ कुंजों में अंतर्धान होते हैं और व्रज-वनिता प्रलाप दशा में तरु-समूह से पूछती हैं कि प्यारे कहाँ गए। कबहुँ (कभी) वे लीला से विदेश में बस, उद्धव को पत्रिका देकर भेजते हैं और फिर उनको व्रज-विरहिणियाँ अपनी विरह-दशा सुनाती हैं।