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छंद 60 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

(कवि संतोष-वर्णन)

उर-अंतर आवत इती, मति सौं अति-अकुलाइ।
कह्यौ कबित-मिस आप ही, तुरत ‘गिरा’ समुझाइ॥

भावार्थ: ऐसी शंका के उत्पन्न होते ही व्याकुल होकर ‘भगवती भारती’ ने स्वप्न में इस दोहे के ब्याज से मेरा संतोष किया।