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छंद 61 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

किरीट सवैया
(कवि संतोष-वर्णन)

आई न जो बक-बावरे पैं, ‘द्विजदेव’ जू हंसन की तौ गई गति।
मैंढुक-मीन न मान कर्यौ तौ, भई है कहा अरबिंदन की छति॥
उक्ति-उदार कबिंदन पैं, बन-बासिन की सुभई न भई रति।
जो पै गँवारन लीन्हौं न तौ, घटि जाती जबाहिर की कहूँ कीमति॥

भावार्थ: वैसे ही समीचीन उक्तिवाले कवि अर्थात् व्यंग्यालंकार, ध्वनि, रस आदि संयुक्त जिनकी उत्तम कविता है, मूढ़ वनवासियों की उनपर प्रीति भई या न भई, दोनों समान हैं; क्योंकि गँवार लोगों ने जो खरीद न किया तो क्या रत्नों की कीमत घट जाती है अर्थात् उनकी कीमत और चमक-दमक को गँवार लोग क्या जान सकते हैं, उसे या तो ‘राजधिराज’ जाने या ‘रत्न-पारखी’।