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छंद 65 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

सोरठा
(कवि संतोष-वर्णन)

रसिक रीझिहैं जानि, तौ ह्वै है कबितौ सुफल।
न तरु सदाँ सुखदानि, श्री राधा-हरि कौ सुजस॥

भावार्थ: अस्तु, मेरी इस कविता पर रसिकजन सहमत होके रीझेंगे तो मैं अपनी कविता को सफल मानूँगा, नहीं तो मेरा आग्रह भी नहीं है; क्योंकि मुझे तो यह सदैव सुखदायी कार्य है कि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर और जिह्वा धारण कर उसके द्वारा श्री ‘राधा-माधव’ के सुयश का वर्णन कर जीवन सफल करूँ।

॥इति प्रथम सुमनम्॥