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छंद 80 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(अति सुकुमारता-वर्णन)

जाबक के भर पग परत धरा पैं मंद, गंध-भार कुचन परी हैं छुटि अलकैं।
‘द्विजदेव’ तैसिऐ विचित्र बरुनी के भार, आधे-आधे दृगनि परी हैं अध-पलकैं॥
ऐसी छबि देखि अंग-अंग की अपार बार-बार लोल-लोचन सु कौंन के न लंलकै।
पानिप के भारन सँभारत न गात लंक, लचि-लचि जाति कच-भारन के हलकैं॥

भावार्थ: उस सुकुमारी के पग पृथ्वी पर मानो महावर के बोझ से मंद-मंद पड़ते हैं एवं उसकी कुंतलावली कुचों पर मानो सुगंधि के भार से छूटकर लटकती है। योंही उसके नेत्रों पर अधखुली पलकें मानो सघन बरुनी के भार से परी (झुकी पड़ती) हैं और उसकी कटि केश-कलाप के भार से मानो लची जाती है तो भला अंगों की अलौकिक ऐसी छवि देखकर किसके लोचन देखने को नहीं ललचाते? अर्थात् उस नायिका का सौकुमार्य ‘कवि’ युक्ति-बल से लक्षित कराता है।