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छंद 82 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

मनहरन घनाक्षरी
(मध्या अथवा रूपगर्विता नायिका-वर्णन)

बैठी हुती आज दुरि-दीपनि मैं आयौ तहाँ, जाहि तू कह्यौ करति बीर हलधर कौ।
भाजी हौं डराइ करि भवन अँधेरौ लागे निपट छवान कान्ह आनि गह्यौ कर कौ॥
दीपति हमारी पैं हमारे साथ कीन्हौं छल, दीन्हौं जो बताइ वाहि भेब घर-घर कौ।
दौरि दुरिबे के काज दीप न बुझायौ सो तौ, गाहक भयौ री आली! आपने हीं गर कौ।

भावार्थ: कोई रूपगर्विता नायिका अपने रूप की प्रशंसा इस ब्याज से करती है कि हे सखी! आज दीपावली के मध्य में मैं सुसज्जित होकर बैठी थी। उसी काल में जिनको कि तू हलधर का वीर कहती है, वे अर्थात कुँवर कन्हाई आए। उनको देख स्वाभाविक लज्जा और भय से समस्त दीपावली को शांत करके छिपने की इच्छा से मैं भागी, किंतु वे भी मेरे पीछे ही झपटे और हाथ पकड़ लिया। हे सखी! मुझसे बड़ी अज्ञानता हुई कि मैंने दीपावली को शांत कर दिया। यदि शांत न करती तो अनेक दीपमाला में दीपशिखा-सी मुझको वह कभी न ढूँढ़ पाते। समस्त दीपों के शांत होने से केवल मेरी ही दीप्ति विशेष प्रकाशमान होने लगी, जिससे सहज ही मैं प्यारे से पकड़ी गई और इस प्रकार मेरी ही बुद्धि मेरे गले की ग्राहक हुई।