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छंद 85 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

दुर्मिला सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

कटि काछिनी काछैं पितंबर की, धरैं मोर-पखान कौ मोरपखा।
‘द्विजदेव’ जू यौं दुपटी फहरै, मनौं बोलत बिरव-बिजै-करखा॥
वह कौंन धौं माधुरी मूरतिवारौ अली! छबि नैननि जाकी चखा।
बिहरै चहुँघाँ बन-बीथिनि बीच, मनोभव-भूप कौ मानौं सखा॥

भावार्थ: कोई पूर्वानुरागिणी नायिका प्रथम दर्शन के पश्चात् और मिलन के पूर्व अंतरंगिणी सखी से इस प्रकार पूछती है कि हे सखी! वह माधुरी मूरतिवाला कौन है, जिसकी रसीली छवि का मेरे नेत्रों ने पान किया है अर्थात् जिसकी छटा नेत्रों द्वारा मेरे हृदय में समा गई है और जिसका वेष मानो काम-सखा अर्थात् वसंत के तुल्य है। जैसे वसंत में पोत-अंबर (आकाश) होता है वैसे ही वे भी ‘पीतांबर’ की काछनी धारण किए हैं और जैसे वसंतकाल में वृक्ष मोरों को अपने ऊपर धारण कर शोभित होते हैं वैसे ही ये भी मोर-मुकुट धारण कर शोभित हो रहे हैं, उसी प्रकार डुपटी (दुपट्टे) की फहरानि से विदित होता है कि दोनों यानी वसंत और नायक ने विश्व विजय किया है। अतएव ‘करखैत’, हाथ ऊँचा कर उच्च स्वर से विजय करखा बोल रहे हैं।